Motivation Story in Hindi || Best Motivation Story in Hindi || Hindi Motivation Story
भय से मुक्ति का उपाय
रंभा , मोहनदास करमचंद गांधी के परिवार की पुरानी सेविका थी। वह पढ़ीलिखी नहीं थी, किंतु इतनी धार्मिक थी कि रामायण को हाथ जोड़कर और तुलसी को सिर नवाकर ही अन्नजल ग्रहण करती थी-
एक रात बालक गांधी को सोने से पहले डर लगा। उसे लगा कि कोई भूत-प्रेत सामने खड़ा है। डर से उन्हें रात भर नींद नहीं आई। सबेरे रंभा ने लाल-लाल आँखें देखीं, तो उन्होंने गांधी से इसके बारे में पूछा गांधी ने पूरी बात सच सच बता दी ।
रंभा बोली, 'मेरे पास भय भगाने की अचूक दवा है। जब भी डर लगे, तो राम नाम जप लिया करो। भगवान् राम के नाम को सुनकर कोई बुरी आत्मा पास नहीं फटकती।'
गांधीजी ने यह नुसखा अपनाया, तो उन्हें लगा कि इसमें बहुत ताकत है। बाद में संत लाधा महाराज के मुख से रामकथा सुनकर उनकी राम-नाम मैं आस्था और सुदृढ़ हो गई। बड़े होने पर गांधीजी ने अनेक ग्रंथों का अध्ययन किया, तो वे समझ गए कि भय से पूरी तरह मुक्ति भी ठीक नहीं होती।
एक बार वर्धा मे एक व्यक्ति उनसे मिलने आया। गांधीजी से उसने पूछा, बापू ! पूरी तरह भयमुक्त होने के उपाय बताएँ।'
गांधीजी ने कहा, 'मैं स्वयं सर्वथा भयमुक्त नहीं हू काम क्रोध ऐसे शत्रु हैं, जिनसे भय के कारण ही बचा जा सकता है। इन्हें जीत लेने से बाहरी भय का उपद्रव अपने-आप मिट जाता है। राग-आसक्ति दूर हो, तो निर्भयता सहज प्राप्त हो जाए।
सेवा से ही कल्याण
स्वामी रामकृष्ण परमहंस दक्षिणेश्वर मंदिर मे बैठे भक्तजनों को उपदेश दे रहे थे। एक दुकानदार पत्नी सहित उनके सत्संग के लिए पहुँचा। सत्संग के बाद उसने 'परमहंस जी से प्रश्न किया, क्या सांसारिक बंधनों मे रहते हुए भगवत् कृपा प्राप्त कर जीवन सार्थक किया जा सकता है?
स्वामीजी ने बताया, संसार में भगवान् को भजने वा साधु-संन्यासी कम, गृहस्थजन अधिक होते हैं। वे सत्कर्मों और भक्ति के माध्यम से अपना जीवन सफल बनाते हैं।
अपने परिवार के प्रति सभी कर्तव्य करो, किंतु मन भगवान् मैं लगाए रखो। जो व्यक्ति अपने माता-पिता, पत्नी और बच्चों से प्रेम नहीं करेगा, वह भला भगवान् से कैसे प्रेम करेगा
परमहंस जी ने आगे कहा, 'गृहस्थ के कर्तव्य हैं कि वह प्राणियों के प्रति दया करे, असहायों-निर्धनों और मूक पशु-पक्षियों की सेवा करे तथा भगवान् के प्रति गहरी आस्था और प्रेम रखे।
सदाचार, ईमानदारी और कर्तव्यपालन ऐसे साधन हैं, जो गृहस्थ का लोक-परलोक, दोनों सुधारने की क्षमता रखते हैं। उसे यह ध्यान रखना चाहिए कि परिवार और सांसारिक प्रपंच मैं वह भगवान् को न भुला दे। जीवन का असली उद्देश्य तो भगवान् की भक्ति ही है।
अंत मैं उन्होंने कहा, भगवान् को पाने के लिए सदपुरुषों का सत्संग, सद्विवेक, विनम्रता और करुणा की भावना जरूरी है। “उस व्यक्ति की जिज्ञासा का समाधान हो गया।
रोगी पर दया करो
गुरु नानकदेव धर्मप्रचार करते हुए उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले के एक गाँव में पहुंचे। उनके साथ भाई मरदाना भी थे। गाँव वाले संत-महात्माओं के महत्व अनभिज्ञ थे।
उन्होंने दोनों को रात में आश्रय देने से इनकार कर दिया। गाँव के बाहर एक कोढ़ी कुटिया में रहता था | उसे गाँव वालों ने निकाल दिया था। उसने दोनों साधुओं को जाते देखा, तो हाथ जोड़कर प्रणाम किया और उनसे अपनी कुटिया मैं ठहरने की गुजारिश की ।
सवेरा होते ही कोढ़ी ने गुरुजी से कहा, बाबा, गाँव वाले मुझसे घृणा करते हैं। कहते हैं कि मेरे शरीर से निकल रही दुर्गंध से अन्य गाँव वालों को भी यह रोग हो जाएगा । आप बताएँ कि मेरा कल्याण कैसे हो?”
गुरुजी के मुख से सहसा निकला, जीओ तपत है बारोबार, तप-तप खपै बहुत बेकार जो तन बाणी बिसर जाए, जिओ पक्का रोगी बिललाए |
गुरुजी की पवित्र वाणी सुनकर कोढ़ी उनके चरणों मैं गिर गया और उनके आशीर्वाद से वह भला-चंगा हो गया । गाँव वालों को जब पता चला कि वे दोनों सिद्ध संत हैं, जिन्होंने कोढ़ी को स्वस्थ कर दिया है, तो वे भागते-भागते कुटिया में पहुँचे और गुरु नानकदेव जी के चरणों में गिरकर क्षमा माँगने लगे।
गुरुजी ने उन्हें उपदेश देते हुए कहा, “किसी भी रोगी से घृणा न करके उसके प्रति दयावान बनना चाहिए।' गुरुजी के आदेश से गाँव वालों ने धर्मशाला और सरौवरों का निर्माण कराया। आज वह जगह गुरुद्वारा 'कोढ़ीवाला धार साहिब' श्रद्धा का केंद्र है
संगठन का महत्त्व
स्वामी विवेकानंद धर्म प्रचार करते हुए एक रियासत में पहुँचे। उस रियासत का जागीरदार धर्म के नियमों को धता बताकर लोगों का उत्पीड़न करता था ।
प्रवचन समाप्त होने के बाद अपना यही दुःख कहने कुछ व्यक्ति स्वामीजी के पास पहुँचे। उन्होंने स्वामीजी से कहा, 'हम धर्म के अनुसार सादा जीवन जीने का प्रयास करते हैं, लेकिन जागीरदार के लठैत हमैं चैन से भगवान् की भक्ति और परिवार का पालन नहीं करने देते। हमें क्या करना चाहिए?
स्वामीजी ने पूछा, 'क्या जागीरदार पड़ोस के शासक से भी झगड़ा करता है?' उन्हें बताया गया कि पड़ोस का जागीरदार उससे ज्यादा शक्तिशाली है। वह उससे डरता है।
स्वामी जी ने कहा, “यही तो प्रकृति का नियम है। शिकारी हिरन और अन्य कमजोर प्राणियों का ही शिकार करता है । मछुआरा निरीह मछली को ही जाल मैं फांसता है ।
कुछ अंधविश्वासी देवता के सामने निरीह बकरे की ही बलि देते हैं। क्या कभी किसी को शेर की बलि देते देखा है? कुछ क्षण रुककर स्वामीजी ने कहा, आप सब भगवान की भ्रक्ति के साथ-साथ संगठित होकर शक्ति का संचय करें।
शरीर से बलिष्ठ बनने पर अत्याचार का विरोध करने का साहस पैदा होगा। जब कारिंदा धमकी देने आए, तो सब इकट्ठा होकर उसका मुकाबला करो |
स्वामीजी की प्रेरणा से ग्रामीणों ने संगठित होकर जागीरदार का विरोध किया। विरोध की आवाज उठते ही जागीरदार के होश ठिकाने आ गए, उसने उन्हें सताना छोड़ दिया
अनूठी कर्मनिष्ठा
क्ली एथेस मातृ-पितृहीन अमेरिकी युवक था। उसने एक धर्मग्रंथ से प्रेरणा लेकर संकल्प किया कि वह परिश्रम करके विद्याध्ययन करेगा, बिना कर्म किए मिले धन-संपत्ति का उपयोग कदापि नहीं करेगा और दुर्व्यसनों से दूर रहकर सदाचारी जीवन बिताएगा |
एथेंस ने प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय मैं दाखिला लिया । कुछ संपन्न परिवारों के छात्र उसकी अनूठी प्रतिभा देखकर चिढ़ गए। उन्होंने षड़यंत्र रचकर न्यायाधीश से शिकायत की कि यह अनाथ लड़का अपराध करके धन अर्जित करता है,
अन्यथा रोटी और पढ़ाई का खर्च उसे कहाँ से मित्रता है ? न्यायाधीश ने उससे पूछा, अनाथ होने के बावजूद तुम विश्वविद्यालय की फीस, पुस्तकों व रोटी कपड़े की व्यवस्था कैसे करते हो?
एथेंस ने विनम्रता से कहा 'सर, दुर्व्यसनों से मुक्त होने के कारण मैं बहुत कम खर्च मे रोटी-पानी का जुगाड़ करता हूँ। पढ़ने की व्यवस्था के लिए मे एक बाग मे कुछ घंटे माली का कार्य करता हूँ।
उससे मिलने वाले धन से पढ़ाई का खर्च चलाता हू न्यायाधीश ने जाँच कराई, तो पता चला कि यह होनहार छात्र सुबह और रात को घोर परिश्रम कर धन अर्जित करता है।
न्यायाधीश ने एथेंस की लगन देखकर दया करके कुछ मुद्राएँ देने का प्रयास किया। उसने हाथ जोड़कर कहा, यदि मैं ये मुद्राएँ स्वीकार कर लूँगा, तो बिना परिश्रम कुछ न लैने के संकल्प से डिगने के पाप का भागी बनूँगा।! आगे चलकर एथेंस की गणना अमैरिका के अग्रणी बुद्धिजीवियों मे हुई।
नैतिक शिक्षा का महत्त्व
आचार्य विनोबा भाव अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे। उन्होंने विभिन्न धर्मों, मत-मतांतरोंके साहित्य का अध्ययन किया था। बड़े-बड़े शिक्षाविद् ज्ञान का लाभ अर्जित करने उनके पास आया करते थे । विनोबाजी संस्कारों को सबसे बड़ी धरोहर मानते थे ।
एक बार महाराष्ट्र के किसी विश्वविद्यालय मे उन्हें आमंत्रित किया गया। विनोबाजी वहाँ पहुँचै। उन्होंने प्राचार्य से बातचीत के दौरान पूछा, विश्वविद्यालय मे किस किस विषय के अध्ययन की व्यवस्था है ?
उन्हें बताया गया कि विभिन्न भाषाओं, गणित, विज्ञान तथा अन्य विषयों का अध्ययन कराया जाता है। विनोबाजी ने पूछा, क्या छात्रों को नैतिक शिक्षा दैने की भी व्यवस्था है?
उन्हें बताया गया कि ऐसी व्यवस्था नहीं है | विनोबाजी ने पूछा, क्या छात्रों को केवल धनार्जन के योग्य बनाने की शिक्षा देना ही पर्याप्त है ? क्या उन्हें सच्चा मानव, सच्चा भारतीय बनाना आप आवश्यक नहीं समझते
यदि छात्रों को अच्छे संस्कार नहीं दिए गए, उन्हें अच्छा मानव बनाने का प्रयास नहीं किया गया, तो युवा पीढ़ी अपनी प्रतिभा व शक्ति का राष्ट्र व समाज के हित मैं ही सदुपयोग करेगी, इसकी क्या गारंटी है ?
मेरे विचार मैं तो सबसे पहले बच्चों व युवक-युवतियों को आदर्श मानव बनने के अच्छे संस्कार दिए जाने चाहिए । संस्कारहीन व्यक्ति तो 'धनपिशाच' बनकर समाज को गलत दिशा मे ही ले जाने का कारण बनेगा। “ विनोबाजी की प्रेरणा से विश्वविद्यालय मे छात्रों को नैतिक शिक्षा दी जाने लगी।
मौत का भय
पद्म पुराण मे कहा गया है, 'जो जन्म लेता है, उसकी मृत्यु निश्चित है। इसलिए मृत्यु से भयभीत होने की जगह सत्कर्मों के माध्यम से मरण को शुभ बनाने के प्रयास करना चाहिए
जैन संत आचार्य तुलसी एक बोधकथा सुनाया करते थे एक मछुआरा समुद्र से मछलियाँ पकड़ता और उन्हें बेचकर अपनी जीविका चलाता था। एक दिन एक वर्णिक उसके पास आकर बैठा। उसने पूछा, मित्र, क्या तुम्हारे पिता है?
उसने जवाब दिया, “हीं, उन्हें समुद्र की एक बड़ी मछली निगल गई।' उसने फिर पूछा, “और तुम्हारा बड़ा भाई ? मुछुआरे ने जवाब दिया, 'नौका डूब जाने के कारण वह समुद्र मे समा गया।
वणिक ने फिर पूछा, दादाजी और चाचाजी की मृत्यु कैसे हुई ? मछुआरे ने बताया कि वे भी समुद्र मैं लीन हो गए थे। वणिक ने यह सुना, तो बोला, मित्र, यह यमुद्र तुम्हारे विनाश का कारण है, बावजूद इसके तट पर आकर जाल डालते हो। क्या तुम्हें मरने कर भया नहीं है ??
मछुआरा बोला, 'भैया, मौत जिस दिन आनी होगी, आएगी ही। तुम्हारे घरवालों मे से दादा, परदादा, पिता मे से शायद ही कोई इस समुद्र तक आया होगा। फिर भी वे सब चल बसे | मौत कब आती है और कैसे आती है, यह आज तक कोई भी नहीं समझ सका है। फिर मे बेकार ही मौत से क्यों डरूँ ?
भगवान् महावीर ने कहा था, 'नाणागमो मच्चुमुहस्य अत्थि' यानी मृत्यु किसी भी द्वार से आ सकती है, इसलिए आत्मज्ञानी ही मौत के भय से बचा रह सकता है
गुरु का सम्मान
श्रीराम कथा की विशिष्ट काव्य शैली मैं रचना करनेवाले पंडित राधैश्याम कथावाचक संत-महात्माओं के सत्संग के लिए लालायित रहा करते थे। संत उड़िया बाबा, श्री हरिबाबा, आनंदमयी माँ तथा संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी के प्रति वे अनन्य श्रद्धा भाव रखते थे।
प्रभुदत्त ब्रह्मचारीजी की प्रेरणा से उन्होंने महामना पंडित मदनमोहन मालवीय को अपना गुरु बनाया था। पंडित राधेश्यामजी मालवीयजी के श्रीमुख से भागवत कथा सुनकर भाव विभोर हो उठते थे |
मालवीयजी को भी राधैश्यामजी की लिखी रामायण का गायन सुनकर अनूठी तृप्ति मिलती थी | वे समय-समय पर उन्हेँ बरेली से काशी आमंत्रित कर उनकी कथा का आयोजन कराते थे
एक बार गुरु पूर्णिमा के अवसर पर पंडित राधैश्यामजी ने संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी के साथ काशी पहुँचकर अपने गुरु मालवीयजी को एक कीमती शॉल व मिठाइयाँ भेट कीं।
मालवीयजी को आग्रहपूर्वक शॉल ओढ़ाया गया। यह शॉल उन्होंने विशेष रूप से गुरु दक्षिणा के लिए तैयार कराया था। कुछ समय बाद अचानक हिंदू विश्वविद्यालय के दक्षिण भारतीय संस्कृत शिक्षक मालवीयजी के दर्शन के लिए आ पहुँचे।
मालवीयजी उनके विरक्त व तपस्वी जीवन से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने शिक्षक की और संकेत कर राधैश्याम कथावाचक से कहा, “ इन्होंने कठोर साधना कर असंख्य छात्रों को देववाणी और धर्मशास्त्रों का अध्ययन कराया है। ऐसे तपस्वी शिक्षक हमारे आदर्श हैं।'
शहीद की कामना
मदनलाल ढींगरा लंदन के इंडिया हाउस से जुड़े रहकर भारत की स्वाधीनता के लिए प्रयासरत थे। विनायक दामोदर सावरकर से प्रैरणा लेकर उन्होंने 4 जुलाई, 99०9 को इंपीरियल इंस्टीट्यूट मे आयोजित समारोह मे सर कर्जन वायली पर सरेआम गोलियाँ बरसाकर उसकी हत्या कर दी।
उन्हें फाँसी की सजा सुनाई गई | मदनलाल ढींगरा ने जेल सै एक वक्तव्य जारी कर निर्भीकतापूर्वक कहा था, 'एक हिंदू होने के नाते मे विश्वास करता हूँ कि अंग्रेजों के हाथों मेरे देश का जो अनादर और अपमान हो रहा है,
वह वास्तव मे परमात्मा का अपमान है। मेरी मान्यता है कि राष्ट्र का काम राम और कृष्ण की आराधना है। एक अक्षम पुत्र होने के नाते मैं अपने रक्त के अतिरिक्त माता के पावन चरणों मे और क्या अर्पित कर सकता हूँ।
ढींगरा ने वक्तव्य के अंत मे अपनी अंतिम कामना व्यक्त करते हुए कहा, 'मैं पुनः भारत माता की गोद मैं जन्म लूँ और देश को स्वाधीन कराने के काम मे लग जाऊँ | प्रभु से यही प्रार्थना है कि भारत के स्वतंत्र होने तक मैं बार-बार मृत्यु का वरण करूँ और पुनः जन्म लेता रहूँ
॥7 अगस्त, 1909 को इस भारतीय देशभक्त युवक को लंदन की पैटन विले जेल मैं फांसी पर चढ़ा दिया गया। उनकी इच्छा के अनुसार पूर्ण धार्मिक हिंदू विधि-विधान से उनकी अंत्यैष्टि की गई। इस अनूठे राष्ट्रभक्त युवक के बलिदान की बड़ी धूम-धाम से शताब्दी मनाई गई।
कुत्ता मेरा ही स्वरूप था
साईं बाबा शिरडी की मसजिद मे रहा करते थे। वे उसे द्वारका माई” कहा करते थे । बाबा सत्संग के लिए आने वालों से अकसर कहा करते कि प्रत्येक प्राणी भगवान का स्वरूप है। जीव मात्र से प्रेम और दुखियों की सेवा करके ही भगवान् की कृपा प्राप्त की जा सकती है ।
एक बार साईं बाबा के प्रति अटूट श्रद्धा रखने वाली श्रीमती तर्खड़ दर्शन के लिए शिरडी आईं। दोपहर के भोजन के समय जैसे ही उन्होंने थाली से रोटी का टुकड़ा उठाया और उसे मूँह मे रखने ही वाली थीं कि अचानक एक कुत्ता सामने आ खड़ा हुआ।
उसकी आवाज सुनकर उन्हें लगा कि कुत्ता भूखा है। उन्होंने रोटी का टुकड़ा मूँह मे न डालकर कुत्ते के सामने डाल दिया। इतना ही नहीं, अपना पूरा भोजन उन्होंने उस कुत्ते को खिला दिया। इसके बाद वह बाबा के पास पहुँची।
साईं बाबा भक्तों को राम नाम के महत्त्व से परिचित करा रहे थे। जैसे ही बाबा की दृष्टि महिला तर्खड़ पर गई, वे बोले, 'माँ, तुमने बड़े प्रेम से मुझे रोटी खिलाई । मेरी आत्मा तृप्त हो गई
महिला ने कहा, बाबा, मैंने आपको भोजन कब कराया ?” बाबा बोले, अरे, कुछ देर पहले तुमने जिस कुत्ते को रोटी खिलाई थी, वह मेरा ही स्वरूप था।
कुछ क्षण रुककर बाबा ने कहा, 'माँ हजारों मील चलकर शिरडी आने की कोई आवश्यकता नहीं है। किसी भी भूखे प्राणी को भोजन कराया करो, समझ लेना कि मेरा आशीर्वाद मिल गया।' सद्गृहस्थ महिला यह सुनकर भाव-विभोर हो उठी।
नाम की अनूठी महत्ता
गुरु नानकदैव जी एक बार किसी तीर्थस्थल पर गए हुए थे। अनेक व्यक्ति उनके सत्संग के लिए वहाँ जुट गए | एक व्यक्ति ने हाथ जोड़कर प्रश्न किया, बाबा, मुझ जैसे साधारण गृहस्थ के कल्याण का सरल उपाय बताएँ
गुरुजी ने कहा, ईश्वर को हरदम याद करने वाला और सादा व सात्विक जीवन जीने वाला व्यक्ति सहज ही अपना कल्याण कर लेता है। तुम प्रेम व भक्ति से भगवान के पवित्र नाम का सुमिरण करो, उस नाम रूपी परम तत्त्व से एकरूप हो जाओ, जीवन सार्थक होते देर नहीं लगेगी।
गुरु नानकदेवजी ने आगे कहा, भगवान् के नाम मे बड़ी अनूठी शक्ति है। उसके नाम का जाप मनुष्य के समस्त पापों और दुःखों को धोने की क्षमता रखता है।
भगवान् का नाम हर तरह के विकारों और दुर्व्यसनों को दूर करके मानव को सदगुणों से संपन्न करता है | ईश्वर के नाम जपने से व्यक्ति वासनामुक्त हो जाता है और पुनर्जन्म के चक्कर से छुटकारा पाकर अंततः मोक्ष को प्राप्त करता है
आत्म कल्याण का सरल उपाय बताते हुए गुरुजी ने कहा, सत्य, सुविचार , सदाचार, प्राणियों के प्रति दया भावना, ईश्वर की स्तुति और गुणगान से मानव अपना कल्याण कर सकता है |
इसलिए हर व्यक्ति को यह प्रार्थना करनी चाहिए कि हे प्रभु, मुझे अपनी शरण मे चाहे जिस भी अवस्था मे रख, तेरी शरण के अतिरिक्त मेरा कोई और आश्रय नहीं है। जो व्यक्ति भगवान् के प्रति शरणागत होता है, वही कल्याण की अनुभूति करता है
साधु के लक्षण
एक दिन कोलकाता के दक्षिणैश्वर मंदिर मैं कुछ साधु संन्यासी स्वामी रामकृष्ण परमहंस के पास सत्संग के लिए पहुँचे। एक सद्गृहस्थ स्वामीजी के सान्निध्य मैं रहकर पिछले काफी समय से साधना कर रहा था |
स्वामीजी उसकी सादगी, निश्छलता और भ्रक्ति भावना से बेहद प्रभावित थे | किसी साधु ने अचानक स्वामीजी से प्रश्न किया, महाराज, सच्चा साधु कौन है? क्या साधु बनने के लिए गृहस्थ जीवन का परित्याग करना जरूरी है ??
यह प्रश्न सुनकर परमहंसजी ने अपनी बगल मे बैठे हुए सफेद वस्त्रधारी उस गृहस्थ साधक की ओर संकेत करते हुए संन्यासियों से कहा, इसे देखिए, यह परिवार के बीच रहते हुए भी सच्चा साधु है
क्योंकि इसने अपना मन, प्राण और अंतरात्मा पूरी तरह ईश्वर को समर्पित कर दिए हैं। यह सदैव भगवान् का चिंतन करता है। यह बीमारों और वृद्धों मे भगवान् के दर्शन कर उनकी सेवा करता है। मैं तो सदाचारी गृहस्थ को ही सबसे श्रेष्ठ संत मानता हूँ।'
परमहंसजी ने कहा, साधु को कंचन और कामिनी से दूर रहना चाहिए। उसे प्रत्यैक नारी मे माता और बहन के दर्शन करने चाहिए। कल क्या खाऊँगा, क्या पहनूँगा - इसकी उसे तनिक भी चिंता नहीं करनी चाहिए जो साधु झाड़ फूँक करने मे लग जाता है,
जो बीमारियाँ दूर करने और चमत्कार का दावा करने लगता है, उसका एक-न- एक दिन पतन अवश्य हो जाता है। घर छोड़कर साधु बनने वाले को भगवान के भजन और सेवा परोपकार मे ही रत रहना चाहिए।
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