Best Kabir Das Dohe In Hindi

 Best Kabir Das Dohe In Hindi ~ संत कबीर के प्रसिद्ध दोह और उनके  अर्थ 

 

Best Kabir Das Dohe In Hindi





कहैं कबीर देय तू जब लग तेरी देह 

देह खेह होय जाएगी, कौन कहेगा देह ।


अर्थ: -  कबीरदास जी कहते हैं कि जब तक यह देह है तब तक तू कुछ-न-कुछ देता  रह जब देह धूल में मिल जाएगी, तब कौन कहेगा कि दो।

 

 

 

 

 धर्म किए धन न घटे नदी न घट नीर

अपनी आखों देखिले यो कथि कहहि कबीर।


अर्थ : -  कबीरदास जी कहते हैं कि धर्म करने से धन नहीं घटता देखो नदी सदैव बहती रहती है, परन्तु उसका जल घटता नहीं। धर्म करके खुद देख लो।

 

 

 

 

 जग में बैरी कोई नहीं जो मन शीतल होय,

यह आपा तो डाल दे. दया करे सब कोय।


अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि अगर हमारा मन शीतल है तो इस संसार में हमारा कोई बैरी नहीं हो सकता। अगर अहंकार छोड़ दें तो हर कोई हम पर दया करने को तैयार हो जाता है।

 

 

 

 लूट सके तो लूट ले राम नाम की लूट

पाछे फिर पछताएगा, प्राण जाहि जब छूट।


अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि सभी तरफ राम नाम की लूट मची है, सभी तुम भगवान का जितना नाम लेना चाहो ले लो नहीं तो समय निकल जाने पर अथार्त मर जाने के बाद पछताओगे कि मैंने तब राम भगवान की पूजा क्यों नहीं की।

 

 

 

 

 जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि है मैं नाही,

 सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही।

 

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि जब मैं अपने अंधकार में डूबा था तब  प्रभु को न देख पाता था लेकिन जब गुरु ने ज्ञान का दीपक मेरे भीतर प्रकाशित किया तब अज्ञान का सब अंधकार मिट गया- ज्ञान की ज्योति से अहंकार  जाता रहा और ज्ञान के आलोक में प्रभु को पाया।

 

 

 

 

माया मुई न मन मुआ, मरी मरी गया शरीर,

आसा त्रिसना न मुई, यों कही गए कबीर।

 

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि संसार में रहते हुए न माया मरती है न मन शरीर न जाने कितनी बार मर चुका पर मनुष्य की आशा और तृष्णा कभी नहीं मरती, कबीर ऐसा कई बार कह चुके हैं।

 

 

 

 

कबीर सो धन सचे, जो आगे को होय

सीस चढ़ाए पोटली ले जात न देख्यो कोय।

 

अर्थ:- कबीरदास जी कहते हैं कि उस धन को इकट्ठा करो जो भविष्य में काम आए। सर पर धन की गठरी बांध कर ले जाते तो किसी को नहीं देखा।

 

 

 

 

कबीर मंब पंछी भया, जहाँ मन तहाँ उड़ी जाई,

जो जैसी संगती कर, सो तैसा ही फल पाई।

 

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि संसारी व्यक्ति का शरीर पक्षी बन गया है और जहाँ उसका मन होता है, शरीर उड़कर वहीं पहुँच जाता है। सच है कि जो जैसा साथ करता है वह वैसा ही फल पाता है।.

 

 

 

 

 गारी मोटा ज्ञान, जो रंचक उर में जरै

कोटि संवारे काम बैरी  उलटि पायन परे ,

कोटि सवारे काम  बैरि उलटि पायन परे

गारी सो क्या हाँ हिरदै जो यह जान धरै ।

 

अर्थ:- कबीरदास जी कहते हैं कि अगर अपने हृदय में थोड़ी भी सहन शक्ति हो, और मिली हुयी गली भारी ज्ञान है। सहन करने से करोड़ो काम सुधर जाते हैं और शत्रु आकर पैरों में पड़ता हैं। अगर ज्ञान ह्रदय में आ जाए तो मिली हुई गाली से अपनी क्या हानि है?

 

 

 

 

कबीर संगी साधू का दल आया भरपूर

इंद्रिन को तब बांधीया या तन किया धर।

 

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि संतो के सधी विवेक-वैराग्य, दया क्षमा, समता आदि का दल जब परिपूर्ण रूप से हृदय में आया तब संतों ने इंद्रियों को रोक कर शरीर की व्याधियों को धूल कर दिया। अथार्त तन-मन को वश में कर लिया।

 

 

 

 

इष्ट मिले अरु मन मिले, मिले सकल रस रीति

कहैं कबीर तहँ जाइये यह संतन की प्रीति ।

 

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि उपास्य, उपासना पद्धति, संपूर्ण रीति-रिवाज और मन जहाँ पर मिले वहीं पर जाना संतों को प्रियकर होना चाहिए।

 

 

 

 


संत न छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत,

 चंदन भुवगा बैठिया  तऊ सीतलता न तजंत ।

 

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि सज्जन को चाहे करोड़ों दुष्ट पुरुष मिलें फिर भी वह अपने भले स्वभाव को कभी नहीं छोड़ता जिस तरह चंदन के पेड़ से सांप लिपटे रहते हैं. पर वह अपनी शीतलता को नहीं छोड़ता।

 

 

 

 

 

ऐसा कोई न मिले हमको दे उपदेश

भौ  सागर में डूबता कर गहि काढै  केस। 

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि सांसारिक लोगों के लिए दुखित हिते हुए कहते हैं कि इन्हें कोई ऐसा पथप्रदर्शक न मिला जो उपदेश देता और संसार सागर में डूबते हुए इन प्राणियों को अपने हाथ के केश पकड़कर निकाल लेता।

 

 

 

 

झूठे सुख को सुख कहे मंत है मन मोद ,

खल्क चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद।

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि अरे ओ जीवा तू झूठे सुख को सुख कहता है और मन में प्रसन्न होता है? देख तेरा यह सारा संसार मृत्यु के लिए उस भोजन के समान है. जो कुछ तो उसके मुंह में है और कुछ गोद में खाने के लिए रखा हुआ है।

 

 

 

 

जो उग्या सो अन्तबै , फुल्या सो कुमलाही,

जो चिनिया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं।  

 अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार का नियम यही है कि जो उदय हुआ है. वह अस्त भी होगा। जो विकसित हुआ है वह मुरझा जाएगा। जो चिना गया है वह गिर पड़ेगा और जो आया है वह पक्का जाएगा।

 

 

 

 

हाड जलै ज्यूँ लाकडी केस  जलै ज्यूँ घास,

सब तन जलता देखि करि , भय कबीर उदास ।

 अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि यह मानव का नश्वर शरीर अंत समय में लकड़ी की तरह जलता है और केश घास की तरह जल उठते हैं। पुरे शरीर को इस तरह जलता देख इस अंत पर कबीर का मन उदासी से बहुत भर जाता है।

 

 

 

 


कबीर कहा गरबियो काल गहे कर केस

न जाने कहाँ मारिसी कै  घर कै  परदेश।

 अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि है मानव! तू क्यों गर्व करता है? यह काल  अपने हाथों में  तेरे केश पकड़े हुए हैं। मालूम नहीं वह घर या परदेश में कही  पर भी तुझे मार डाले।

 

 

 

 

कबीर लहरि समंद की मोती बिखरे आई

बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खायी।

 अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि समुद्र की लहरों में मोती आकर बिखर गए। बगुला उनका भेद नहीं जानता, परंतु हंस उन्हें चुन-चुन कर खा रहा है। इसका अर्थ यह है कि किसी भी वस्तु का महत्व सिर्फ उसका जानकार ही जान पाता है।

 

 

 

 

 कहत सुनत सब दिन गए. उरझि न सुरझ्या मन

कहीं कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन।

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि कहते सुनते सब दिन निकल गए, पर यह मन उलझ कर न सुलझ पाया। कबीर कहते हैं कि अब भी यह मन होश में नहीं आता। आज भी इसकी अवस्था पहले दिन के समान ही है।

 

 

 

  

मन ही मनोरथ छांडी दे, तेरा किया न होई

पानी में घिव निकसे, तो रुखा खाए न कोई।

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य मात्र को समझाते हुए कहते हैं कि मन की इच्छाएं छोड़ दो, उन्हें तुम अपने बलबूते पर पूर्ण नहीं कर सकते। अगर पानी से ची निकल आए तो रुखी रोटी कोई नहीं खाएगा।

 

 

 

 

तन को जोगी सब करें मन को बिरला कोई

सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होई।

 अर्थ :-कबीरदास जी कहते हैं कि शरीर में भगवे वस्त्र धारण करना तो सरल है, किन्तु मन को योगी बनाना कुछ ही व्यक्तियों का काम है।  अगर मन योगी हो जाए तो सारी सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती है।

 

 

 

 

 आछे / पाछे दिन पाछे गए हरि से किया न हेतु,

अब पछताए होत  क्या, चिड़िया चुग गयी खेत।

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि देखते-देखते सब भले दिन अच्छा समय बीतता चला गया। तुमने न तो परोपकार किया न ही प्रभु  का ध्यान लगाया  अब समय बीत जाने पर पछताने से क्या मिलेगा? पहले जागरूक न थे-ठीक उसी तरह जैसे कोई किसान अपने खेत की रखवाली ही न करे और देखते देखते पंछी उसकी फसल बर्बाद कर जाएँ।

 

 

 

 

 कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी

एक दिन तू भी सोवेहा लंबे पांव पसारी ।

अर्थ:- कबीरदास जी कहते हैं कि अज्ञान की नींद में सोए क्यों रहते हो? ज्ञान के प्रकाश को हासिल कर प्रभु का नाम लो। सजग होकर प्रभु का ध्यान करो। वह दिन दूर नहीं जब तुम्हें गहन निद्रा में सो  ही जाना है, जब तक जाग सकते हो  जागते क्यों नही? प्रभु का नाम स्मरण क्यों नहीं करते?

 

 

 

 

 कबीर तहां न जाइए, जहाँ सिद्ध को गाँव

स्वामी कहै न बैठना, फिर-फिर पूछे नाँव 

अर्थ :-  कबीरदास जी कहते हैं कि अपने को सर्वोपरी मानने वाले अभिमानी सिद्धों के स्थान पर भी मत जाओ। क्योंकि स्वामीजी ठीक से बैठने तक की बात नहीं कहेंगे. बारम्बार नाम  पूछते रहेंगे।

 

 

 

 

कबीर तहां न जाइए, जहाँ जो कुल को  हेत

 साधुपनों जाने नहीं, नाम बाप को लेट।

 अर्थ :- कबीरदास जी गुरुओं से कहते हैं कि वहां मत जाओ, जहाँ पर पूर्व के कुल कुटुंब का संबंध हो। क्योंकि वे लोग अपनी साधुता के महत्व को नहीं जानेंगे, केवल शारीरिक पिता का नाम लेंगे, अमुक का लड़का आया है।

 

 

 

 

 कहते को कही जान दे गुरु की सीख तू लेय

साकट जन औश्वन की फेरी जवाब न देय।

 अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि उल्टी पल्टी बात बकने वाले को बकते जाने दो., तू गुरु की ही शिक्षा धारण कर साकट और कुत्तों को उलट कर उत्तर न दे।

 

 

 

 

 धर्म किए धन न घटे नदी न घट नीर

अपनी आखों देखिले यो कथि कहहि कबीर।

 अर्थ :-  कबीरदास जी कहते हैं कि धर्म करने से धन नहीं घटता देखो नदी सदैव बहती रहती है, परन्तु उसका जल घटता नहीं। धर्म करके खुद देख लो।

 

 

 

 

 गॉठी होय सो हाथ कर हाथ होय सो देह,

 आगे हाट न बानिया लेना होय सो लह।

 अर्थ : - कबीरदास जी कहते हैं कि जो गाँठ में बांध रखा है, उसे हाथ में ला. और जो हाथ में हो उसे परोपकार में लगा नर शरीर के बाद इतर कहानियों में बाजार व्यापारी कोई नहीं है, लेना हो सो यही ले लो।

 

 

 

 

 या दुनिया दो रोज की मत कर यासो  हेतु

 गुरु चरनन चित लाइए, जो पूरण सुख है।

 अर्थ:-  कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार का झमेला दो दिन का है अतः इससे मोह संबंध न जोड़ो। सदगुरु के चरणों में मन लगाओ, जो पूर्ण सुख देने वाले हैं।

 

 

 

 

 देह खेह होय जाएगी, कौन कहेगा देह. 

निश्चय कर उपकार ही जीवन का फन येह।

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि मरने के बाद तुमसे कौन देने को कहेगा? अतः निश्चित पूर्वक परोपकार करो, यही जीवन का फल है।

 

 

 

 

 

 दोस पराए देखि करि, चला हसंत हसंत

अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि यह मनुष्य का स्वभव है कि जब वह दूसरों के दोष देखकर हंसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न आदि है न अंत।

 

 

 

कबीरा ते नर अंध है, गुरु को कहते और

हरि रूठे गुरु ठौर है. गुरु रूठे नहीं ठौर।

 अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि जो लोग गुरु को दूसरा व्यक्ति समझते हैं, वे लोग अंधे हैं। क्योंकि जब भगवान रूठ जाते हैं तो गुरु के पास ठिकाना मिल सकता है। लेकिन गुरु के रूठने पर कहीं ठिकाना नहीं मिल सकता है।

 

 

 

 

 

  जो तोको कांटा बुवै ताहि बोव तू फल

तौहि फूल को फूल है वाको है तिरसूल ।

अर्थ :-  कबीरदास जी कहते हैं कि जो तुम्हारे लिए परेशानियों कड़ी करता रहता हो, तुम उसके लिए भी भला ही करो। तुम्हारी की गई अच्छाई तुम्हें ही लाभ पहुंचाएगी, और उसकी बुरी आदत उसे ही नुकसान पहुंचाएगी।

 

 

 

 

 सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनराई,

धरती सब कागद करौ हरि गुण लिखा न जाई।

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि अगर सात समुद्रों के पानी को स्याही बना लिया जाए, सरे पेड़ पौधों को कलम बना लिया जाए और अगर पूरी धरती को कागज बना लिया जाए, तो भी भगवान के गुण को नहीं लिखा जा सकता है।

 

 

 

 

 कनक- कनक तै सौ गुनी मादकता अधिकाय

वा खाए बौराए जग या देखे बौराए।

 अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि जिस प्रकार मनुष्य धतुरा को खाने पर अमित ( पागल  ) सा हो जाता है उसी प्रकार स्वर्ण को देखने पर भी भ्रमित हो जाता है। 

 

 

 

 

 जाति न पुचौ साधू की, पुच लीजिए ज्ञान,

 मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान।

 अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि लोगों की जाति पाती के भेदभाव को छोड़ जहाँ से ज्ञान मिले वहां से ज्ञान बटोरने की बात की है। यह समझाते हुए कह रहे हैं किसी भी। विद्वान व्यक्ति की जाति न पूछकर उससे ज्ञान सीखना समझना चाहिए, तलवार के मोल को समझो, उसके म्यान का कोई मूल्य नहीं ।

 

 

 

 

 कबीर संगत साधू की निज प्रति कीजै जाए

दुरमति दूर बहावासी देशी सुमति बताय।

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि सकारात्मक विचारों के पास रहने से किस प्रकार जीवन में सकारात्मक सोच और विचार हम ला सकते हैं उसको समझाया है। प्रतिदिन जाकर सतो विद्वानों की संगत करो, इससे तुम्हारी दुर्बुद्धि, और नकारात्मक सोच दूर हो जाएगी और सतों से अच्छे विचार भी सीखने जानने को मिलेगा।

 

 

 

 

 

 मक्खी गुड में गड़ी रहे पंख रहे लिपटाए

हाथ मेल और सिर ढूंढे, लालच बुरी बलाए।

 अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि मक्खी गुड खाने के लालच में झट से जा कर गुड़ पर बैठ जाती है परन्तु उसे लालच मन के कारण यह भी याद नहीं रहता कि गुड में वह चिपक भी सकती है और बैठते ही वह चिपक जाती है और मर जाती है उसी प्रकार लालच मनुष्य को भी किस कदर बर्बाद कर सकती है वह सोचना भी मुश्किल है।

 

 

 

 

 

 साधू ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय

सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय

अर्थ  :- कबीरदास जी कहते हैं कि इन संसार के सभी बुरी चीजों को हटाने और अच्छी चीजों को समेट  सकने वाले विद्वान् व्यक्तियों के विषय में बता रहे हैं। दुनिया में ऐसे साधुओं और विद्वानों की आवश्यकता है जैसे अनाज साफ करने वाला सूप होता है, जो सार्थक को बचा लेंगे और निरर्थक को उड़ा देंगे।

 

 

 

 

 

 चाह मिटी, चिंता मिटी, मनवा बेपरवाह

जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह 

 अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि इस जीवन में जिस किसी भी व्यक्ति के मन में लोभ नहींमोह माया नहीं, जिसको कुछ भी खोने का डर नहीं, जिसका मन जीवन के भोग विलास से बेपरवाह हो चुका है वही सही मायने में इस संसार का राजा महाराजा है।

 

 

 

 

 

 मानुष जन्म दुलभ है, देह न बारम्बार ,

तरवर थे फल झड़ी पड्या, बहुरि न लागे डारि । 

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि मानव जन्म पाना कठिन है। यह शरीर बार-बार नहीं मिलता। जो फल वृक्ष से नीचे गिर पड़ता है वह पुनः उसकी डाल पर नहीं लगता।

 

 

 

 

 

 इक दिन ऐसा होगा, सब सूं पड़े बिछोह

राजा राणा छत्रपति सावधान किन होय ।

 अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि एक दिन ऐसा जरुर आएह जब सबसे बिछड़ना पड़ेगा। हे राजाओं! हे छत्रपतियों! तुम अभी से सावधान क्यों नहीं हो जाते।

 

 

 

 

 

 पानी कर बुदबुदा, अस मानुस की जात,

एक दिन छिप जाएगा, ज्यौं तारा परभात।  

 अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि जैसे पानी के बुलबुले है , इसी प्रकार मनुष्य का शरीर क्षणभंगुर है। जैसे प्रभात होते ही तारे छिप जाते हैं, वैसे ही ये देह भी एक दिन नष्ट हो जाएगी।

 

 

 

 

 जब गुण को गाहक मिले तब गुण लाख बिकाई,

जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई।

 अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि जब गुण को परखने वाला ग्राहक मिल जाता है तो गुण की कीमत होती है। पर जब ऐसा ग्राहक नहीं मिलता तब गुण कौड़ी के भाव चला जाता है।

 

 

 

 

 मन मक्का दिल द्वारिका, काया कशी जान,

दश द्वारे का देहरा, तामें ज्योति पिछान।

 अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि पवित्र मन ही मक्का और दिल  ही द्वारिका है और काया को ही काशी जानो। दस द्वारों के शरीर मंदिर में ज्ञान  प्रकाशमय स्व-स्वरूप चेतन को ही सत्य देवता समझो।

 

 

 

 

 

 न्हार धोए क्या भय, जो मन मैला न जाए

मीन सदा जल में रहै , धोए बास न जाए।

 अर्थ :-  पवित्र नदियों में शारीरिक मेल धो लेने से कल्याण नहीं होता। इसके लिए  भक्ति साधना से मन का मेल साफ करना पड़ता है। जैसे मछली हमेशा जल में रहती है, लेकिन इतना घुलकर भी उसकी दुर्गंध समाप्त नहीं होती ।

 

 

 

 

 

 पाहन केरी पूतरी, करि पूजै  संसार

याहि भरोसे मत रहो, बूड़ो  काली धार ।

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि पत्थर की मूर्ति बनाकर संसार के लोग पूजते हैं। परन्तु इसके भरोसे मत रहो, अन्यथा कल्पना के अंधकार कुएं में, अपने को डूबै डुबाएं समझो ।

 

 

 

 

 बार-बार तोसो कहा, रे मनवा नीच

बजारे का बैल ज्यौ, पैडा माही मीच।

 अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि है नीच मनुष्य सुन, तुझसे मैं बारम्बार कहता रहा हूँ। जैसे एक व्यापारी का बैल बिच मार्ग में प्राण गवा देता है वैसे तू भी अचानक एक दिन मर जाएगा।

 

 

 

 

 रात गंवाई सोए के दिवस गवाया खाय,

हीरा जन्म अनमोल था कोडी बदले जाए।

 अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि अपना पूरा जीवन केवल सोने और खाने में ही बर्बाद कर देने वाले हे मनुष्य तू याद रख कि भगवान ने यह अनमोल जन्म उंचाईयों को हासिल करने के लिए दिया है, न कि इसे बेकार करने के लिए।

 

 

 

 

 झूठा सब संसार है. कोउ न अपना मीत

राम नाम को जानि ले चलै सो भौजल जीत।

 अर्थ :कबीरदास जी कहते हैं कि है मनुष्य । ये संसार झूठा और असार है जहां कोई अपना मित्र और संबंधी नहीं है। इसलिए तू राम नाम की सच्चाई को जान ले तो ही इस भवसागर से मुक्ति मिल जाएगी।

 

 

 

 

 यह बिरियाँ तो फिरि नहीं, मन में देखू विचार

आया लाभ कारनै जनम हुआ मत हार।

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि है दास ! सुन मनुष्य जीवन बार-बार नहीं मिलता, इसलिए सोच-विचार कर ले कि तू लाभ के लिए अथार्त मुक्ति के आया है। इस अनमोल जीवन को तू सांसारिक जुए मैं मत हार।

 

 

 

 

 भय से भक्ति करै सबै भय से पूजा होय

भय पारस है जीव को निर्भय होय न कोय।

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि सांसारिक भय के कारण ही लोग भक्ति और पूजा करते हैं। इस प्रकार भय जीव के लिए पारस के समान है, जो इसे भक्तिमार्ग में लगाकर उसका कल्याण करता है। इसलिए संमार्ग पर चलने के लिए जरुरी है कि सभी भीरु हाँ।

 

 

 

 

 सुख के संगी स्वारथी, दुःख में रहते दूर

कहै कबीर परमारथी दुःख सुख सदा हजूर ।

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि स्वार्थी लोग मात्र सुख के साथी होते हैं। जब दुःख आता है तो भाग खड़े होने में क्षणिक विलंब नहीं करते हैं और जो सच्चे परमार्थी होते हैं वे दुःख हो या सुख सदा साथ होते हैं।

 

 

 

 

 संसारी से प्रीतड़ी, सरै न एकी काम,

 दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम ।

 अर्थ : -कबीरदास जी खाते हैं कि संसारी लोगों से प्रेम और मेल-जोल बढ़ाने से एक भी काम अच्छा नहीं होता, बल्कि दुविधा या भ्रम की स्थिति बन जाती है, जिसमें न तो भौतिक संपत्ति हासिल होती है, न अध्यात्मिका दोनों ही खाली रह जाते हैं।

 

 

 

 चिंता ऐसी डाकिनी काट कलेजा खाए,

वैद बेचारा क्या करे, कहा तक दवा लगाए।

 अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि चिंता एक ऐसी डाकिनी  है कि यह किसी के भो दिल को खा जाती है। कोई डॉक्टर भला क्या कर सकता है? उसकी दवा कितनी दूर तक मदद कर पाएगी?

 

 

 

जैसे तिल में तेल है, ज्यों चकमक में आग,

तेरा साई तुझ में है. तू जाग सके तो जाग।

 अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि तिल के बीज में तेल होता है और चकमक पत्थर में आग। ठीक उसी तरह ईश्वर बीज के समान आपके भीतर है और तुम प्रार्थना स्थलों पर ढूंढते हो।

 

 


कस्तूरी कुंडल बसे, मृग ढूंढ़त बन माहि

ज्यो घट घट राम है, दुनिया देखे नाही ।

 अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि एक हिरण खुद में सुगंधित होता है, और इसे खोजने के लिए पुरे वन में चलता है। इसी प्रकार राम हर जगह है लेकिन दुनिया नहीं देखती है। उसे अपने अंतर्मन में ईश्वर को खोजना चाहिए और जब वह एक बार भीतर के ईश्वर को पा लेगा तो उसका जीवन आनंद से भर उठेगा।

 

 

 

 

बंदे तू कर बंदगी, तो पावैं दीदार

औसर मानुष जन्म का, बहुरि न बारम्बार।  

अर्थ :- है सेवक! तू सद्गुरु की सेवा कर क्योंकि सेवा के बिना उसका स्वरूप साक्षात्कार नहीं हो सकता है। तुझे इस मनुष्य जन्म का उत्तम अवसर बारम्बार न मिलेगा।

 

 

 

 

 दीपक सुंदर देख करि जरि जरि मरे पतंग

बढ़ी लहर जो विषय की, जरत न मोरे अंग।  

अर्थ :- जिस तरह दीपक की सुनहरी और लहराती लौ की ओर आकर्षित होकर कीट पतंगे उसमें जल मरते हैं उसी प्रकार जो लोभी  लोग होते है वो विषय-वासना की तेज लहर में बहकर ये तक भूल जाते हैं कि वे डूब मरेंगे।

 

 

 

 निर्मल गुरु के नाम सो  निर्मल साधू  भाय

कोइला होय न उजला, सौ मन साबुन लाय।  

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि सतगुरु के सत्य ज्ञान से निर्मल मनवाले लोग भी सत्य- ज्ञानी हो जाते हैं, लेकिन कोयले की तरह काले मनवाले लोग मन भर साबुन मलने पर भी उजले नहीं हो सकते अथार्त उन पर विवेक और बुद्धि की बैटन का कोई असर नहीं पड़ता।

 

 

 

 तू-तू करू तो निकट है. दूर-दूर करू तो हो जाए

ज्यौ गुरु राखैं  त्यौ  रहै जो देवै सो खाय

अर्थ :- तू-तू करके बुलावे तो निकट जाए. अगर दूर-दूर करके दूर करे तो दूर जाए। गुरु और स्वामी जैसे रखे उसी प्रकार रहे जो देवे वही खाय कबीर कहते हैं कि यही अच्छे सेवक के आचरण होने चाहिए।

 

 

 

बुरा जो देखन में चला बुरा न मिलिया कोय ,

जो दिल खोजा आपना, तो मुझसे बुरा न कोय।

 

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि जब मैं इस संसार में बुराई खोजने निकला तो मुझे कोई बुरा नहीं मिला परन्तु जब मैंने अपने मन में झांक कर देखा तो पाया कि इस संसार में मुझ से बुरा कोई नहीं है। 

 

 

 

 

 पोथी पढि पढि जग मुआ, पंडित भया न कोय,

ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय ।

 

अर्थ :- बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़कर इस जग में न जाने कितने लोग मृत्यु के द्वार पहुँच गए, पर सभी विद्वान् न हो सके। कबीर मानते हैं कि अगर कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी प्रकार से पढ़ ले अथार्त प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी है।

 

 

 

 

बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि ,

हिये तराजू तौलि के ता मुख बाहर आनि ।

 अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि वाणी एक अमूल्य रत्न के समान है। इसलिए वह हृदय के तराजू में तोलकर अथार्त सोच समझकर हो उसे मुंह से बाहर आने देना चाहिए।

 

 

 

 अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप

अति का जला न बरसना, अति की अली न धूप।

 अर्थ :- कबीरदास जी कहते है कि न तो अधिक बोलना अच्छा है, न ही अधिक चुप रहना ही ठीक है। जैसे बहुत अधिक वर्ष भी अच्छी नहीं और बहुत अधिक धूप भी अच्छी नहीं है। अतः हमें संयम के साथ रहना चाहिए। ।

 

 

 

 

 ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय

औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय।

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि ऐसी वाणी में बात कीजिए, जिससे सब का मन भाव विभोर हो जाए। आपकी मधुर वाणी सुनकर आप खुद भी शीतल हो और जो सुने वो भी प्रसन्न हो जाए।

 

 

 

 

 दुर्बल को न सताइए, जाकी मोटी हाय,

मेरी खल की साँस से, लोह भस्म हो जाए।

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं किसी को दुर्बल या कमजोर समझकर उसको सताना नहीं चाहिए क्योंकि दुर्बल की हाय या शाप बहुत प्रभावशाली होता है। जैसे मरे हुए जानवर की खल को जलाने से लोहा तक पिघल जाता है।  

 

 

 

 पत्थर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजू पहाड़

घर की चाकी कोई न पूजे, जाको पीस खाए संसार ।

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि अगर पत्थर की मूर्ति की पूजा करने से भगवान मिल जाते तो मैं पहाड़ की पूजा कर लेता हूँ। उसकी जगह कोई घर की चक्की की पूजा कोई नहीं करता, जिसमें अन्न पीसकर लोग अपना पेट भरते हैं।

 

 

 


गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, काके लागू पाय

बलिहारी गुरु आपके, गोविन्द दियो मिलाय

 अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि गुरु का स्थान ईश्वर से भी ऊपर है। अगर दोनों एक साथ खड़े हो तो किसे पहले प्रणाम करना चाहिए। किंतु गुरु की शिक्षा के कारण ही भगवान के दर्शन हुए हैं। तो पहला प्रणाम गुरु को करना चाहिए।  

 

 

 

 

 माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौदै मोय

एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय।  

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि मिट्टी कुम्हार से कहती हैं कि आज तो तू मुझे पैरों के नीचे रौद रहा है। पर एक दिन ऐसा आएगा जब तू मेरे निचे होगा और मैं तेरे ऊपर होउंगी। अथार्त मृत्यु के बाद सब मिट्टी के नीचे ही होते हैं।

 

 

 

 

 कहे कबीर कैसे निबाहे केर बेर को संग ,

वह झूमत रस आपनी उसके फाटत अंग।

 अर्थ :-कबीरदास जी कहते हैं कि भिन्न प्रकृति के लोग एक साथ नहीं रह सकते। जैसे केले और बेर का पेड़ साथ-साथ नहीं लगा सकते। क्योंकि हवा से बैर का पेड़ हिलेगा और उसके काँटों से केले के पत्ते कट जाएंगे।  

 

 

 

 

 कबीरा खड़ा बाजार में, सबकी मांगे खैर,

न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर ।

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि सबके बारे में भला सोचो न किसी से ज्यादा दोस्ती रखो और न ही किसी से दुश्मनी रखो।

 

 

 

 

 बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर

पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर।

 अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि सिर्फ बड़े होने से कुछ नहीं होता। उदाहरण के लिए खजूर का पेड़, जो इतना बड़ा होता है पर न तो किसी यात्री को धुप के समय छाया दे सकता है, न ही उसके फल कोई आसानी से तोड़ के अपनी भूख मिटा सकता है।

 

 


जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ

मैं बपुरा बूडन डरा रहा किनारे बैठ।

अर्थ :- जो जितनी मेहनत करता है उसे उसका उतना फल अवश्य मिलता है। गोताखोर गहरे पानी में जाता है तो कुछ लेकर ही आता है, लेकिन जो डूबने के डर से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं वे कुछ नहीं कर पाते हैं।

 


 

कुटिल वचन सबतें बुरा, जारि करै   सब छार,

साधू वचन जल रूप है, बरसै अमृत धार

 अर्थ - कबीरदास जी कहते हैं कि बुरे वचन विष के समान होते हैं और अच्छे वचन अमृत के समान लगते हैं।

 

 

 

जैसा भोजन खाइए, तैसा ही मन होय

जैसा पानी पीजिए, तैसी वाणी होय ।

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि हम जैसा भोजन करते हैं वैसा ही हमारा मन हो जाता है और हम जैसा पानी पीते है वैसी ही हमारी वाणी हो जाती है।

 

 

 


माला फेरत जग भया , फिरा  न मन का फेर

कर का मनका डार दे., मन का मनका फेर।

 अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि कुछ लोग वर्षों तक हाथ में माला लेकर फेरते हैं लेकी उनका मन नहीं बदलता अथार्त उनका मन करुणा  और प्रेम की ओर नहीं जाता। ऐसे व्यक्तियों को माला छोड़कर अपने मन को बदलना चाहिए और सच्चाई के रास्ते पर चलना चाहिए।

 

 

 

साधू भूखा भाव का धन का भूखा नाहि

धन का भूखा जी फिरै सो तो साधू नाहि 

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि साधु  हमेशा करुना और प्रेम का भूखा होता और कभी भी धन का भूखा नहीं होता। और जो धन का भूखा होता है वह साधू नहीं हो सकता।

 

 


 

तिनका कबहुँ न निदिये, जो पॉवन तर होय

कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय

 अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि कभी भी पैर में आपने वाले तिनके की भी निंदा नहीं करनी चाहिए क्योंकि अगर वही तिनका आँख में चला जाए तो बहुत पीड़ा होगी।

 

 


 

दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय

जो सुख में सुमिरन करे, दुःख काहे को होय।  

 अर्थ :- कबीरदास जी कहते है कि सुख में भगवान को कोई याद नहीं करता लेकिन दुःख में सभी भगवान से प्रर्थन करते हैं। अगर सुख में भगवान को याद किया जाए तो दुःख क्यों होगा।

 

 

 

 

 साई इतना दीजिए. जा में कुटुम समाय

मैं भी भूखा न रहूँ. साधू न भूखा जाए।

 अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि है परमात्मा तुम मुझे केवल इतना दो कि जिसमें मेरा गुजारा चल जाए। मैं भी भूखा न रहूँ और अतिथि भी भूखे वापस न जाए ।

 

 

 

मांगन मरण समान है, मति मांगो कोई भीख

मांगन ते मरना भला यह सतगुरु की सीखा

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि मांगना मरने के समान है इसलिए कभी भी किसी से कुछ मत मांगो।

 

 

 

 

निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय

बिना पानी, साबुन बिना निर्माण करे सुभाय ।

अर्थ :- कबीरदास जी कहते  हैं कि निंदा करने वाले व्यक्तियों को अपने पास रखना चाहिए क्योंकि ऐसे व्यक्ति बिना पानी और साबुन के हमारे स्वभाव को स्वच्छ कर देते है।

 

 


 

 धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,

माली सौचे सौ घडा. ऋतू आप फल होए।

अर्थ :- कबीर दास जी कहते हैं कि हमेशा धैर्य से काम लेना चाहिए। अगर माली एक दिन में सौ घड़े भी सीच लेगा तो भी फल ऋतू आने पर ही लगेगा।

 

 

 

 

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब

पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगी कब

अर्थ :-  कबीर दास जी कहते हैं कि जो कल करना है उसे आज करो और जो आज करना है उसे अभी करो। जीवन बहुत छोटा होता है अगर जीवन पल भर  में समाप्त हो गया तो क्या करोगे।

 

 

 


 हिन्दू कहे मोहि राम पियारा, तुर्क कहे रहमाना

आपस में दौड़ लड़ी-लड़ी मरे मरम न जाना कोई।

 अर्थ :-  कबीर दास जी कहते हैं कि हिन्दुओं को राम प्यारा है और मुसलमानों को रहमान इसी बात पर वे आपस में झगड़ते रहते है लेकिन सच्चाई को नहीं जान पाते।

 

 

 

 

मैं मैं बड़ी बलाय है, सके तो निकसी भागि

कब लग राखौं हे सखी, रुई लपेटी आगि।  

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि अहंकार बहुत बुरी वस्तु है। हो सके तो इससे निकल कर भाग जाओ। मित्ररुई में लिपटी अग्नि- अहंकार को मैं कब तक अपने पास रखूं ?

 


 

 

 यह तन  काचा कुम्भ है, लिया फिरे था साथ,

 ढबका लागा फुटिगा कुछ न आया हाथ।

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि यह शरीर कच्चा घड़ा है जिसे तू साथ लिए घूमता फिरता था। जरा सी चोट लगते ही यह फूट गया। कुछ भी हाथ नहीं आया।

 

 


 

जाता है सो जाण दे, तेरी दसा न जाई

खेवटिया की नाव ज्यूँ घने मिलेंगे आइ।

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि जो जाता है उसे जाने दो। तुम अपनी स्थिति को , दशा को न जाने दो। अगर तुम अपने स्वरूप में बने रहे तो केवट की नाव की तरह अनेक व्यक्ति आकर तुमसे मिलेंगे।

 

 


 

 मान, महातम, प्रेम रस, गरवा तण गुण नेह,

ए सबही अहला गया, जबहीं कया कुछ देह।

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि मान, महत्व, प्रेम रस, गौरव गुण और स्नेह सब बाढ़ में बह जाते हैं जब किसी मनुष्य से कुछ देने के लिए कहा जाता है।

 

 


 

कबीर प्रेम न चक्खिया, चक्खि न लिया साव

सूने घर का पाहूना, ज्यूँ आया त्यूं  जाव ।

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं जिस व्यक्ति ने प्रेम को चखा नहीं, और चख कर स्वाद नहीं लिया. वह उस स्थिति के समान है  जो सूने, निर्जन घर में जैसा आता है, वैसा ही चला भी जाता है, कुछ प्राप्त नहीं कर पाता।

 

 

 

 

  कबीर थोड़ा जीवना, मांडे बहुत मंडाण ,

कबीर थोड़ा जीवना मांडे बहुत मंडाण 

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि थोड़ा सा जीवन है, उसके लिए मनुष्य अनेक प्रकार के प्रबंध करता है। चाहे राजा हो या निर्धन चाहे बादशाह सब खड़े खड़े नष्ट हो गए।

 

 

 

 

 झिरमिर झिरमिर बरसिया पाहन ऊपर मेह,

 माटी गलि सैजल भई पाहन बोही तेह।

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि बादल पत्थर के ऊपर झिरमिर करके बरसने लगे। इससे मिट्टी तो भीग कर सजा हो गई किन्तु पत्थर वैसा का वैसा बना रहा।

 

 

 

हरिया जाणे रुखड़ा. उस प्राणी का नेह,

सुका काठ न जानई, कबहूँ बरसा मेंह।

 अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि पानी के स्नेह को हरा वृक्ष ही जानता है। सुखा काठ लकड़ी क्या जाने कि कब पानी बरसा? अर्थात  सहृदय ही प्रेम भाव को समझता है। निर्मम मन इस भावना को क्या जाने?

 

 

 

 जिही जिवी से जाग बंधा तु जनी बंधे कबीर

जासी आटा लॉन ज्यौ  , सों  समान शरीर।

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि जिस भ्रम की रस्सी से जगत के जीव बधे है है कल्याण इच्छुक तू उसमें मत बांध। नमक के बिना जैसे आटा फीका हो जाता है। वैसे सोने के समान तुम्हारा उत्तम नर शरीर भजन बिना व्यर्थ जा रहा है।

 

 

 

 

 बहते को मत बहने दो कर गहि एचहु ठौर

कहयो सुन्यों मानै नहीं, शब्द कहो दुई और।  

अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि बहते हुए को मत बहने दो, हाथ पकड़कर उसको मानवता की भूमिका पर निकाल लो। अगर वह कहा सुना न माने तो भी निर्णय के दो वचन और सुना दो।

 

 

 

 गारी ही से उपजै, कलह कष्ट और मीच,

 हरि चले सो संत है लागि मरै सो नीच।

 अर्थ :- कबीरदास जी कहते हैं कि गाली से झगड़ा संताप एवं मरने मरने तक की बात आ जाती है। इससे अपनी हार मानकर जो विरक्त हो चलता है. वह संत है, और जो व्यक्ति मरता है, वह नीच है ।  

 

 

 

 

 

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